एक दिन मुझे कहीं जाना हुआ ।
मैं घर से रवाना हुआ ।।
कुछ दिन बाद लौट कर आया ।
मैंअपने टेवल के पास खड़ा था ।।
मेरा कलम उदास वे सहारा ।
टेवल पर पड़ा था ।।
न कलम में वो शरारत था।
न उसके चेहरे पे।।
खुशियों की आहट था ।
कलम बोला अशोक जी ।।
आप भी काफी दिन से मुझे ।
अपने हाथ में उठाया नहीं।।
टेवल से हिलाया नहीं ।।
मुझे कागज पर चलाया नहीं ।
मुझे कोई सजा तो नहीं दिया है ।
आप भी औरों के तरह ।
मुझे भुला तो नहीं दिया है ।।
मुझे लगा अब आप भी।
इस हल मैं मुझे छोड़ दोगे।।
और कुछ दिन बाद मुझे ।
सड़क पर फेक दोगे ।।
मैंने कलम से कहा।
ये बात तुम अपने जूबाँन पर।
क्यों लाया है ।।
अरे मुझे तो सड़क पर परा ।
जो भी कलम दिखा है ।।
उसको उठा कर मैंन ।
कितने ही कविता लिखा है
मैं टेवल के पास से हटने नहीं लगा ।
कलम का बात मैं सुनने लगा ।।
पहले कोई किसी से अगर ।
फोन नम्बर पूछ लेते थे ।।
कागज का टुकड़ा निकाल कर ।
मुझ से ही लिख लेते थे ।।
और अब तो मोबाइल से ।
मोबाइल में भेज देते है ।।
और हम जेब में पड़े-पड़े ।
जेब से देखते रहते हैं ।।
पहले मैं कितना मचलता था ।
हर जगह कागज पर ।
मैं ही चलता था ।।
मेरे बिना किसी का कहीं ।
दाल ही नहीं गलता था ।।
अब तो मुझे बार-बार एक ही ।
काम के लिए जन्म पड़ेगा ।।
और न्यायालय में जज के ।
पास ही रहना पड़ेगा ।।
अब मेरा भी नाम ।
अपराधी से जोड़ देगा ।।
अपराधी को सजा लिखेगा ।
और मेरा जुबान तोड़ देगा ।।
और मेरा जुबान तोड़ देगा ।।
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Ashok Kumar✍
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