।। मां और मेरा बचपन।।
मां है ना यही वो आंगन,
जहां खेल के हम बड़े हुए।
जब वह करती थी मेरी ओर,
तेरी उंगली पकड़ के बरेे हुएं।
जो भी आजाता हाथ में,
उसे मुं से लगा लेते
थे।
कभी तो चुपके चुपके
,
हम मिट्टी भी खा लेते
थे।
तुम कहती थी मुं खोल जरा,
दिखा मुझे को क्या खाया है।
हाथ जरा आगे कर अपनी,
पीछे हाथ में क्या छुपाया है।
डांट डांट कर हाथ
खोलबाती,
और मैं कितना रोता
था।
छोटी छोटी उंगली के
मुट्ठी में,
मिट्टी का टुकड़ा
होता था।
जब आंगन के चूल्हे पर,
तुम रोटी कभी पकाती थी।
चुपके से तेरे पीछे जाकर,
तेरे गले लिपट हम जाते थे,
तुम कहती हाथ में
लकड़ी है,
मुझे छोड़ चोट लग
जाएगा।
देख तवे पर डला है
रोटी,
रोटी भी जल जाएगा।
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