।।
मानसून का पानी।।
मैं मानसून का पानी ,
मैं चाहूं बहू जहां से।.
मेरी मर्जी जिस चीज को ,
मैं लेजाऊं साथ बहा के ।
है ऊंचा नीचा कुछ भी
नहीं,
मैं पर्वत चट्टान को
बहा दूँ ।
मेरी मर्जी मैं चाहूं
जहां से,
वही अपना रास्ता बना
लूं ।
ना सीमा रोक सका मुझे,
ना बांध में मैं बंधी हूं ।
मैं जब चाही जहां से भी,
वहीं से ही मैं बही हूं ।
हो चाहे जैसा जितना
भी,
सीमेंट सरिया किसी के
भीतर में।
मैं कुछ घंटों में ही बदल
दूं ,
विकास, प्रगति, को कीचड़
में।
मैं तो सीमेंट सरिया को,
धूल ही बस समझती हूं।
मैं इस पूरी धरती को ही,
अपना पथ समझती हूं।
Thanks for reading 📝
Ashok Kumar✍
No comments:
Post a Comment