।। बढ़ते शहर, सिकुड़ते रिश्ते ।।
आज कल अंधेरे में रहने को दिल करता है,
दिन के उजाले क्या,
जुगनू की चमक से भी डर लगता है ।
- छोटी
चिरैयाँ कहाँ गई थी
- ये
हरियाली न जाने
- बैंक
से पैसा ले के
खा लिया
- वो
मज़ा नहीं दुनिया के
किसी कोने में
- आया
सर्दी का मौसम दूर
हुई सब सुस्तीsssssssssssssssssssssssssss
पर अपना अब शहर में कोई नहीं।
जिसके साथ बचपन में खेला था ,
वो भी अब गैर सा लगता है ।
इस शहर में कितने घरों को टूटते देखा है,
कितनों को लूटते हुएे देखा है,
इसी शहर में एक मां को ,
अपनी बेटी को लेकर छूपते देखा है।
क्या शहर के रिश्ते इतने कमजोर हो गया है
या लोग कमजोर होते हैं
की उम्र बढ़ते ही गैरों से क्या,
अपने मां बाप से भी रिश्ता तोड़ लेते हैं ।
ओझल क्यों सब रिश्ते हो रहे हैं,
या रिश्ते से डर लगता है
ऐसे में अब गैरों से उम्मीद भी क्या करें,
अबअपनों से मिलने में भी डर लगता है ।
मुझे देखकर सर को झुका लेती है,
मैं देखना भी चाहूं तो खुद को छुपा लेती है,
बदल गई है वो ,
या मेरी सूरत से उसे डर लगता है ।
किसी की बात भी ,
मेरे जख्मों पर बार सा लगता है,
किसी को दिखाऊँ तो दिखाऊँ कैसे,
हवा का रफ्तार भी जख्मों पर तलवार सा लगता है।
अब हर किसी का इरादा,कतार सा लगता है,
किसी से मुलाकात ,बेकार सा लगता है ,
घूरते हैं अब कोई ऐसे किसी को,
लोगों की आंखें भी मुझे,
कत्ल का औजार सा लगता है।
अपना घर तो रहा नहीं ,
एक निशान सा दिखता है।
वो अपनी गलियों को याद करूं तो ,
आंखों से आंसू रिसता है ।
Thanks
for reading📝
Ashok Kumar ✍
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